इतिहास के निष्ठुर पन्ने और अभागे राहुल

इतिहास के निष्ठुर पन्ने और अभागे राहुल

पंकज शर्मा
अगर राहुल यह लक्ष्य आभासी-संसार में विचर रहे भोंदू-भोंपुओं, आंकड़ों की बाजीगरी कर रहे भाड़े के महंगे टट्टुओं और कागज़़ी कारकूनी के अखिल भारतीय करतब में मशगूल बांसुरी वादकों के भरोसे करना चाहते हैं तो प्रभु उन की रक्षा करें! इसलिए कि उन की राजनीतिक रक्षा में आगे की पूरी पीढ़ी के सियासी मुस्तकबिल के प्राण बसे हैं। पिछले दो दशक की प्रयोगधर्मिता ने कांग्रेस की एक पूरी पीढ़ी को बदहाली के इस कगार पर पहुंचा दिया है। कांग्रेस को आगामिक फटेहाली से महफ़ूज़ रखने के लिए सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खडग़े और राहुल गांधी को थोड़ा बेरहम होना पड़ेगा।

पांच में से तीन राज्यों में नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी ने जैसे नतीजे हासिल किए हैं, कोई माने-न-माने, वे हैरतज़दा हैं, रहस्यमयी हैं और डरावने हैं। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा है कि ये नतीजे अक्स हैं, चेहरा हैं या फिर आईना हैं? इस मोशा-बनैटी ने कांग्रेस को सुट्ट-अवस्था में ला दिया है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि अगर ज़मीनी हालात सचमुच ये थे तो फूं-फां कर रहे उस के ऐसे-ऐसे धुरंधर नेताओं को, उस के अंग्रेज़ीदां आंकड़े-विज्ञानियों को और उस से हमदर्दी रखने वाले बुद्धि-नरेशों को वे कहीं दिखाई क्यों नहीं दिए?

नतीजे आने के बाद वाले शनिवार तक हालांकि छह दिन बीत चुके थे, लेकिन मैं ने अपना यह स्तंभ उस दिन इसलिए जानबूझ कर नहीं लिखा कि मैं चाहता था कि चुनावों का ऐलान होने से नतीजे आने तक के पूरे पौने दो महीनों में अलग-अलग सामाजिक ताल-तलैयाओं के जिन सुधीजन, अलग-अलग वैचारिक मकडज़ालों से लिपटे सियासी दिग्गजों, अलग-अलग खेतों की मेड़ों पर मौजूद ज़मीनी तत्ववेत्ताओं और अलग-अलग रंगरोगन वाले हल्लाबोलू सूरमाओं से मेरी बातचीत होती रही थी, उन से नतीजे आने के बाद एक बार फिर बात कर लूं और तब कुछ कहूं।

सो, अब मैं खुल कर यह कहने की स्थिति में हूं कि इन चुनाव नतीजों ने कांग्रेस और विपक्ष को ही नहीं, भाजपा और उस के अभिभावक-संगठन को भी चौंकाया है। चुनावों के दौरान भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जिन बड़ी-छोटी अंत:पुरी-हस्तियों और मैदानी सेनानियों ने मुझ से कहा था कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में तो कांग्रेस की सरकारें बन रही हैं, वे अब भी अपने आकलन पर कायम हैं। उन के सार्वजनिक सुर भले ही बदल गए हैं, मगर निजी बातचीत में वे मानते हैं कि भाजपा की ऐसी छप्परफाड़ जीत की तो उन्हें दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं थी। जब मैं ने उन में से कइयों से ईवीएम-भूमिका पर सीधे प्रश्न किए तो मैं चकित था कि एक ने भी ईवीएम की पवित्रता का दावा अपनी छाती ठोक कर नहीं किया।

कांग्रेस और विपक्ष की तरफ़ से ईवीएम के चरित्र पर लगाए जा रहे सांकेतिक लांछन तो मेरी समझ में आते हैं, लेकिन सत्तासीन समुदाय से संबद्ध संजीदा लोग भी जब अनौपचारिक बातचीत में ईवीएम की चारित्रिक शुचिता का हलफ़ उठाने से मैं ने कतराते देखे तो मेरी ऊहापोह कैसे नहीं बढ़ेगी? इसलिए कोई मुझ पर कुछ भी तोहमत लगाए, मैं मानता हूं कि इस बात की सचमुच छानबीन होनी चाहिए कि मतदाताओं के श्वेत-अश्वेत निर्णय को चुनींदा तरीके से अश्वेत-श्वेत करने वाला कोई जीवाणु कहीं किसी खोह में पालथी जमाए बैठने का माद्दा तो नहीं रखता है? दूर से यह बात भले ही दूर की कौड़ी लगती हो, मगर क्या यह आरजू़ रखना भी कोई हिमाकत है कि अगर हम सब जऱा करीब जा कर देखें तो भी हमें ईवीएम वैसी ही मल्लिका-ए-हुस्न नजऱ आए, जैसी दूर से आती है?

किसी भी हुकूमत के बारे में यह राय क्यों बनने देनी चाहिए कि वह शक़-शुबहों की पड़ताल करने से बचने की कोशिश करती है? हमारे निर्वाचन आयोग के बारे में यह धारणा क्यों बनने देनी चाहिए कि वह शिकायतों की जांच से आंखे चुराता है? मुल्क़ की सब से आला अदालत के बारे में यह नज़रिया क्यों बनने देना चाहिए कि उस के फ़ैसले शायद कुछ दबावों से प्रभावित होते हैं? ठीक है कि अयोध्या में श्रीराम के भव्य मंदिर की स्थापना के पौने दो महीने पहले वैसा रामराज्य अभी स्थापित नहीं हुआ कि कोई भी धोबी उठ कर कुछ कह दे और सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ जाए। मगर गहराते कुहासे को छांटने के लिए ज़रूरी न्यूनतम उपाय खोजने जितना रामराज्य अगर नरेंद्र भाई के राज में आ भी जाए तो हजऱ् क्या है?

वैसे तो ईवीएम की लंपटता अभी प्रमाणित नहीं है और ईश्वर न करे कि हमें कभी उस के छिनालत्व से रू-ब-रू होने का दृश्य देखना पड़े, मगर ईवीएम के नैनमटक्के का बहाना ले कर कांग्रेस और बाकी विपक्ष को उन की जि़म्मेदारी से पूरी तरह मुक्त कर देने को भी मैं तो तैयार नहीं हूं। अगर हम मान भी लें कि विधानसभा के इन चुनावों में कांग्रेस की इस जूताखाऊ पराजय के पीछे कोई काला जादू है तो भी ऐसी कांग्रेस को कोई कब तक झेले, जिसे अपनी पीठ के ऐन पीछे की, आहट तो छोडि़ए, महानाद तक सुनाई नहीं देता है? मुझे तो कभी-कभी लगता है कि राहुल गांधी कैसे अभागे हैं कि उन्हें ऐसी कांग्रेस की रहनुमाई करनी पड़ रही है, जिस में कुछ को छोड़ कर कोई उन का सगा नहीं है! वे इतने भले और भोले क्यों हैं कि उन्हें यह तक पता नहीं चलता है कि कौन-कौन कितने-कितने साल से उन से मिलने की कोशिश कर रहा है और मिल नहीं पा रहा है? आखिऱ राहुल ख़ुद भी ऐसी कांग्रेस को कैसे झेल रहे हैं?

कांग्रेस-अध्यक्ष के पद पर मल्लिकार्जुन खडग़े की औपचारिक उपस्थिति अपनी जगह है, लेकिन इस से राहुल की जवाबदेही कम नहीं हो जाती है। उलटे वह इसलिए और बढ़ जाती है कि पार्टी-संगठन की केंद्रीय भूमिका में निन्यानबे प्रतिशत लोग वे हैं, जिन्हें राहुल ने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में नियुक्त किया था। इसलिए कांग्रेस की कामयाबियों का श्रेय खडग़े को भले न मिले, पार्टी की नाकामियों का ठीकरा राहुल के सिर पर ज़रूर फूटता रहेगा। वे इसी के लिए शापित हैं। सो, जितनी जल्दी वे सांगठनिक संरचना के लिए बेहिचक ताल ठोकेंगे, उन के लिए उतना ही बेहतर होगा। ईवीएम पर संदेह जायज़ हैं, मगर आकाशीय शीर्ष नेतृत्व और पार्टी के धरतीधरों के बीच अड़े खड़े द्वारपालों की भूमिकाओं पर संदेह भी उतने ही जायज़ हैं। 2024 के कुरुक्षेत्र में सलीके से उतरने के लिए खडग़े-राहुल को इन दोनों ही पहलुओं पर निग़ाह रखनी होगी। नहीं तो कांग्रेस की रही-सही आबरू भी आते बरस की लू के थपेड़ों में लुट जाएगी।

मैं नहीं जानता कि खडग़े-राहुल-प्रियंका की त्रयी 2024 में कांग्रेस को लोकसभा में किस आंकड़े तक पहुंचा पाएगी। मैं यह भी नहीं जानता कि मोशा-तंत्र में इंडिया समूह के राजनीतिक दलों के दीन-ईमान को डिगाने लायक कूवत है या नहीं। मगर मैं इतना ज़रूर जानता हूं कि अगर कांग्रेस और सकल विपक्ष ने सलाहियत से काम लिया तो, बावजूद ताजा चुनाव परिणामों के, भारतीय संविधान की स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन व्यवस्था में नरेंद्र भाई को इस बार स्पष्ट बहुमत हासिल करने से काफी पहले रोक देने के अंकुर छिपे हुए हैं।

लेकिन अगर राहुल यह लक्ष्य आभासी-संसार में विचर रहे भोंदू-भोंपुओं, आंकड़ों की बाजीगरी कर रहे भाड़े के महंगे टट्टुओं और कागज़़ी कारकूनी के अखिल भारतीय करतब में मशगूल बांसुरी वादकों के भरोसे करना चाहते हैं तो प्रभु उन की रक्षा करें! इसलिए कि उन की राजनीतिक रक्षा में आगे की पूरी पीढ़ी के सियासी मुस्तकबिल के प्राण बसे हैं। पिछले दो दशक की प्रयोगधर्मिता ने कांग्रेस की एक पूरी पीढ़ी को बदहाली के इस कगार पर पहुंचा दिया है। कांग्रेस को आगामिक फटेहाली से महफ़ूज़ रखने के लिए सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खडग़े और राहुल गांधी को थोड़ा बेरहम होना पड़ेगा। नहीं होंगे तो इतिहास के निष्ठुर पन्ने पूरी आतुरता से यह गाथा लिखने को पसरे पड़े हैं।

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